समाज में रहकर समाज-निरपेक्षता की बात निराला की दृष्टि में बौद्धिक मक्कारी है। परंपरा, संस्कृति, धर्म, भाग्य, कर्मफल के नाम पर बहुसंख्यको को उपेक्षित और पराधीन बनाए रखने की कोशिश एक साजि़श है। निराला सत्ता और सामाजिक संरचना के उस मायावादी स्वरूप को बार-बार चुनौती देते हैं जो वर्ण, वर्ग के नाम पर मनुष्य की हैसियत को छोटा करती है। ऐसा समाज, ऐसी अर्थ व्यवस्था “बन्दीगृह” सदृश है जिसे वे तोड़ने का आह्वान करते हैं। वे अपने को, सम्पूर्ण भारतीय समाज को उस “बन्दीगृह” में कै़द पाते हैं। उनकी बेचैनी इस कारा को तोड़ने की है। |